परम ईश्वर

 

    सातवें अध्याय में जो कुछ कहा जा चुका है उससे हमारी नवीन पूर्णतर भूमिका की तैयारी होती है और इसकी असंदिग्धता भी यथेष्ट रूप से स्थापित हो जाती है । तात्पर्यरूप से बात यह आती है कि हमें अंतर्मुख होकर एक महान् चैतन्य और एक परम भाव की ओर, विश्व-प्रकृति का सर्वथा त्याग करके नहीं बल्कि हम इस समय वास्तविक रूप से जो कुछ हैं उसकी उच्च स्तर की अर्थात् आध्यात्मिक पूर्णता साधित करके, चलना है । हमें मर्त्य जीवन की अपूर्णता को परिवर्तित करके अपने स्वरूप की दिव्य पूर्णता सिद्ध करनी है । इस पूर्णता की सम्भावना जिस भावना के आधार पर की जाती है वह प्रथम भावना यही है कि मनुष्य के अन्दर व्यष्टि-जीव अपने सनातन स्वरूप और मूल शक्ति के हिसाब से परमात्मा परमेश्वर की ही एक किरण है और उसीका यहाँ छिपा हुआ आविर्भाव है, उसीकी सत्ता का एक सत्स्वरूप, उसीकी चेतनाकी एक चेतना और उसी के स्वभाव का एक स्वभाव है, पर वह इस मनोमय और अन्नमय जगत् के अंधकार में, अपने उदगम और अपने सत्स्वरूप और अपने सत्स्वभाव को भूला हुआ है । दूसरी भावना है तन-मन-प्राणरूप से आविर्भूत जीव की द्विविध प्रकृति की--एक है मूल प्रकृति जिसमें यह जीव अपने वास्तविक आत्मस्वरूप के साथ एक है, और दूसरी है निम्न प्रकृति जिसमें यह अहंकार और अज्ञान की भ्रामक-परंपरा के अधीन है । इस दूसरी को त्यागकर अंतर्मुख होकर असली अध्यात्म-प्रकृति को प्राप्त करना, उसको पूर्ण करना, उसे सशक्तिक और कर्मशील बनाना होता है । एक आंतरिक आत्म-पूर्णता, एक नवीन स्वरूप-स्थिति प्राप्त कर एक नयी शक्तिमें जन्म लेकर हम अध्यात्म-प्रकृति में लौट आते और फिर से उन परमेश्वर का एक अंश बनते हैं जिनसे हम इस मर्त्य शरीर में आये हैं ।

 

    यहाँ उस समय के प्रचलित भारतीय विचार के साथ एक अंतर है, यह उतना निषेधात्मक नहीं बल्कि अधिक स्वीकारात्मक है । यहाँ प्रकृति के आत्मवि-लोपन के अभिभूत करनेवाले विचार की जगह एक अधिक विस्तृत और श्रेष्ठ

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१. गीता अ० ७, २६-३०;  अ० ८ 

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समाधान मिलता है, वह है प्रकृति में आत्म-परिपूर्णता का सिद्धान्त । इसमें, गीता के बहुत पीछे भक्ति-संप्रदायों की जो वृद्धि हुई उसका, कम-से-कम, पूर्वा-भास भी मिलता है । हमें अपनी इस प्राकृत अवस्था के परे, जिस अहंभावापन्न सत्ता में हम रहते हैं उसके पीछे छिपी हुई, जिस सत्ता की प्रथम अनुभूति होती है वह सत्ता गीता के मत में भी वही महान् निरहं अक्षर अचल ब्रह्म-सत्ता है जिसकी समता और एकता के अन्दर हमारा क्षुद्र अहंकारगत व्यष्टिभाव लीन हो जाता है और उसकी प्रशान्त पवित्रता के अन्दर हमारी सब क्षुद्र कामना-वासनाएँ छूट जाती हैं । परन्तु इसके बाद जो पूर्णतर अनुभूति होती है उसमें हमारे सामने वे अनन्त भगवान् सशक्त रूप से प्रकट होते हैं जिनकी सत्ता अपरिमेय है, हम--पुरुष, प्रकृति, जगत् और ब्रह्म सभी-जो कुछ भी हैं उन्हीं से निकले हैं और उन्हीं के हैं । जब हम आत्मा में उनके साथ एक होते हैं तो अपने-आपको खो नहीं देते, बल्कि अनन्त की महामहिम परम सत्ता में स्थित अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाते हैं । यह काम एक साथ तीन क्रियाओं के द्वारा होता है- ( १ ) भगवान् की तथा अपनी पराप्रकृति के आधार पर अपने सब कर्मों को करना और उनके द्वारा अपने पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार करना, ( २ ) जिन भगवान् में यह सब कुछ है और जो स्वयं सब कुछ हैं उन्हें जानकर अपने स्वरूप को पूर्ण रूप से प्राप्त होना, और ( ३ ) इन सबसे अधिक अमोघ और परम समर्थ क्रिया-अपने कर्मों के अधीश्वर, अपने हृदय-निवासी, अपने समग्र जाग्रत् जीवन के आधार उन समग्र और परम की ओर आकर्षित होकर सर्वभाव से प्रेम और भक्ति के द्वारा अपने-आपको उन्हें समर्पित कर देना । हम उन्हें जो हमारे सब कुछ के मूल हैं,  हम वह सब कुछ समर्पित कर देते हैं जो कि हम हैं । हमारे सतत समर्पण-कर्म से हम जो कुछ जानते हैं वह सब उन्हीं का ज्ञान और हमारा संपूर्ण कर्म उन्हीं की शक्ति की ज्योति हो जाता है । हमारे आत्मसमर्पण में जो वेगवान् प्रेमप्रवाह होता है वह हमें उन्हीं के पास ले जाता और उनके स्वरूप का गभीरतम मर्म हमारे सामने खोलकर रख देता है । प्रेम यज्ञ के त्निसूत्र को पूर्ण करता और ''उत्तमं रहस्यम्'' को खोलने की त्निविध कुंजी को पूर्ण रूप से गढ़ लेता है ।

 

    हमारे आत्मसमर्पण में समग्र ज्ञान का होना उसकी कार्यक्षम शक्ति की पहली शर्त है । और इसलिए हमें सबसे पहले इस पुरुष को ''तत्वतः'' अर्थात् इसकी भागवत सत्ता की सब शक्तियों और तत्वों के रूप में, इसके संपूर्ण सामंजस्य के रूप में, इसके सनातन विशद्ध स्वरूप तथा जीवनलीला के रूप में जानना होगा । परन्तु प्राचीन मनीषियों की दृष्टि में इस तत्वज्ञान का सारा मूल्य बस इस मर्त्य जगत् से मुक्त होकर एक परम जीवन के अमृतत्व को प्राप्त करने की साधना में ही

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निहित था । इसलिए गीता अब यह बतलाती है कि यह मुक्ति भी, इस मुक्ति की परमावस्था भी किस प्रकार गीता की अपनी आध्यात्मिक आत्मपरिपूर्णता की साधना का एक परम फल है । यहाँ गीता के कथन का यही आशय है कि पुरुषोत्तम का ज्ञान ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान है । जो मुझे अपनी दिव्य ज्योति, अपना उद्धार-कर्ता, अपनी अन्तरात्माओं को ग्रहण और धारण करनेवाला मानकर मेरी शरण लेते हैं 'माम् आश्रित्य'--भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि, जो जरामरण से, मर्त्य जीवन और उसकी सीमाओं से मुक्त होने के लिए मेरा आश्रय लेकर साधन करते हैं वे उस ब्रह्म को, संपूर्ण अध्यात्म-प्रकृति और अखिल कर्म को जान लेते हैं । और चूँकि वे मुझे जानते हैं और साथ ही जीव की अपरा और परा प्रकृति तथा यज्ञस्वरूप इस जगत्कर्म के स्वामी की सत्यता को जानते हैं, अतः वे इस भौतिक जीवन से प्रयाण करने के नाजुक समय भी मेरा ज्ञान रखते हैं और उस क्षण में उनकी सम्पूर्ण चेतना मेरे साथ एक हो जाती है । अत: वे मुझे प्राप्त होते हैं । मृत्यु-संसार-सागर से निकलकर वे उस परब्रह्मपद को उतनी ही सफलता के साथ पाते हैं जितनी सफलता से वे लोग जो अपने पृथक् व्यष्टिभाव को निरहं अक्षर ब्रह्म में घुला-मिला देते हैं । इस प्रकार गीता का यह महत्वपूर्ण और निश्चयात्मक सप्तम अध्याय समाप्त होता है ।

 

    यहाँ कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्द आये हैं जो संक्षेप से जगद्रूप में भागवत आविर्भाव के प्रधान मौलिक सत्यों का परिचय कराते हैं । वहाँ इसके सभी कारण और कार्य रूप मौजूद हैं, वह सारी चीज मौजूद है जिसका जीव को सम्पूर्ण आत्मज्ञान की ओर लौटने में काम पड़ता है । सबसे पहले है 'तद्ब्रह्म'; दूसरा है अध्यात्म अर्थात् प्रकृति में स्थित आत्मतत्वइसके बाद हैं  'अधिभूत' और 'अधिदैव' अर्थात् आत्मसत्ता के 'इदं' और 'अहं'  पदार्थ ; अंत में है अधियज्ञ अर्थात् विश्वकर्म और यज्ञ का गूढ़ तत्व । यहाँ श्रीकृष्ण के कहने का आशय यह है कि इन सबके ऊपर जो 'मैं' हूँ 'पुरुषोत्तम', उस मुझको इन सबमें होकर और इन सबके परस्पर-सम्बन्धों के द्वारा ढूंढना और जानना होगा (मां विदु:) --यही उस मानवचैतन्य के लिए एकमात्र सर्वांगपूर्ण पथ है जो मेरे पास लौट आना चाहता है । परन्तु शुरू में इन पारिभाषिक शब्दों से यह बात सर्वथा स्पष्ट नहीं होती, इनसे भिन्न-भिन्न अर्थ निकल सकते हैं; इसलिए इस प्रसंग में इनके वास्तविक अभिप्राय को स्पष्ट करा लेने के लिए शिष्य अर्जुन ने जो प्रश्न किया उसका उत्तर भगवान् अति संक्षेप से देते हैं--गीता ने कहीं भी केवल दार्शनिक दृष्टि से किसी बात की व्याख्या बहुत विस्तार से नहीं की है, वह उतनी ही बात बतलाती है और इस ढंग से बतलाती है कि जीव उस तत्व को ग्रहण मात्र कर ले और स्वानुभव की ओर आगे बढ़े ।

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'तदूब्रह्म' पद उपनिषदो में भूतभाव के विपरीत स्वत:सिद्ध सद्धस्तु के लिए बारंबार प्रयुक्त हुआ है, गीता मे यहाँ इस पद से 'अक्षरं परमम् अर्थात् उस अक्षर ब्रह्मसत्ता का अभिप्राय मालूम होता है जो भगवान् का परम आत्मप्रकाश है और जिसकी अपरिवर्तनीय सनातनी सत्ता के ऊपर यह चल और विकसनशील जगत् ठहरा हुआ है । अध्यात्म से अभिप्राय है 'स्वभाव' अर्थात् वह चीज जो परा प्रकृति में जीव का आत्मगत भाव और विधान है । गीता कहती है कि 'कर्म' 'विसर्ग' का नाम है अर्थात् उस सृष्टि-प्रेरणा और शक्ति का जो इस आदि मूलगत स्वभाव से सब चीजों को बाहर छोड़ती है और उस स्वभाव के ही प्रभाव से प्रकृति में सब भूतों की उत्पत्ति, सृष्टि और पूर्णता साधित करती है । 'अधिभूत' से अभिप्राय है 'क्षर भाव' अर्थात् परिवर्तन की सतत क्रिया के परिणाम । 'अधिदैव'  से वह पुरुष, वह प्रकृतिस्थ अंतरात्मा अर्थात् वह अहंपदवाच्य जीव अभिप्रेत है जो अपनी मूलसत्ता के समूचे क्षरभाव को, जो प्रकृति में कर्म के द्वारा साधित हुआ करता है, अपनी चेतना के विषय-रूप  से देखता और भोग करता है । 'अधियज्ञ' से, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि, 'मैं स्वयं अभिप्रेत हूँ--'मैं'  अर्थात् अखिल कर्म और यज्ञ के प्रभु, भगवान् परमेश्वर, पुरुषोत्तम जो यहाँ इन सब देहधारियों के शरीर में गुप्त रूप से विराजमान हैं । अतः जो कुछ है सब इसी एक सूत्र में आ जाता है । 

 

     इस संक्षिप्त विवरण के पश्चात् गीता तुरत ही ज्ञान से परम मोक्ष प्राप्त होने की भावना का विवेचन करने की ओर अग्रसर होती है जिसका निर्देश पूर्वाध्याय के अन्तिम श्लोक में किया गया है । गीता इस विषय में अपने विचार की ओर बाद में आयेगी और वह परतर प्रकाश देगी जो कर्म और आन्तरिक अनुभूति के लिए आवश्यक है, उपर्युक्त पारिभाषिक शब्दों द्वारा जो चीज सूचित होती है उसके पूर्णतर ज्ञान के लिए हम तबतक प्रतीक्षा कर सकते हैं । पर आगे बढ़ने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम इन वस्तुतत्वों के बीच जो परस्पर-सम्बन्ध है उसे उतने स्पष्ट रूप से देख लें जितना इस श्लोक से तथा इसके पूर्व जो कुछ कहा गया है उससे समझ सकते हैं । क्योंकि, यहाँ विसर्गका जो क्रम है उसके सम्बन्ध में ही गीता ने अपना अभिप्राय सूचित किया है । इस क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्म अर्थात् परम, अक्षर, स्वत:सिद्ध आत्मभाव है; देशकाल-निमित्त में होनेवाले विश्वप्रकृति के खेल के पीछे सर्वभूत यही ब्रह्म है । उस आत्मसत्ता से ही देश, काल और निमित्त की सत्ता है और उस परिवर्तनीय सर्वस्थित परन्तु फिर भी अविभाज्य आश्रय के बिना देश, काल, निमित्त अपने विभाग, परिणाम और मान निर्माण करने में प्रवृत्त नहीं हो सकते । परन्तु अक्षर ब्रह्म स्वत: कुछ नहीं करता, किसी कार्य का कारण नहीं होता, किसी बात का विधान नहीं करता; वह निष्पक्ष, सम और सर्वाश्रय

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है; वह चुनता या आरम्भ नहीं करता । तब यह संकल्प करनेवाला, विधि-विधान करनेवाला कौन है, परम की वह दिव्य प्रेरणा देनेवाला कौन है ? कर्म का नियामक कौन है और कौन है जो सनातन सद्वस्तु से काल के अन्दर इस विश्व-लीला को प्रकट करता है ? यह 'स्वभाव' रूप से प्रकृति है । परम, परमेश्वर, पुरुषोत्तम अपनी सत्ता से उपस्थित हैं और वे ही अपनी सनातन अक्षर सत्ता के आधार पर अपनी परा आत्मशक्ति के कार्य को धारण करते हैं । वे अपनी भागवती सत्ता, चैतन्य, संकल्प या शक्ति को प्रकट करते हैं--''ययेदं धार्यते जगत्'', वही परा प्रकृति है । इस परा प्रकृति में आत्मा का स्वबोध आत्मज्ञान के प्रकाश में गतिशील भाव को, वह जिस चीज को अपनी सत्ता में अलग करता और अपने स्वभाव में अभिव्यक्त करता है, उसके प्रकृत सत्य को, जीव के आध्यात्मिक स्वभाव को देखता है । प्रत्येक जीव का स्वगत सत्य और आत्मतत्व जो स्वयं अपनी क्रिया के द्वारा बाह्य रूप में व्यक्त होता है, जो सबके अन्दर मूलभूत भागवत प्रकृति है जो सब प्रकार के परिवर्तनों, विपर्ययों और पुनर्भवों के पीछे सदा बनी रहती है, वही स्व-भाव है । स्वभाव में जो कुछ है वह उसमें से विश्व-प्रकृति के रूप में छोड़ा जाता है ताकि विश्वप्रकृति पुरुषोत्तम की भीतरी आँख की देख-रेख में उससे जो कर सकती हो करे । इस सतत स्वभाव में से अर्थात् प्रत्येक संभूति की मूल प्रकृति और उसके मूल आत्मतत्व में से नानात्व का निर्माण करके यह विश्वप्रकृति उसके द्वारा उस स्वभाव को अभिव्यक्त करने का प्रयास करती है । वह अपने ये सब परिवर्तन नाम और रूप, काल और देश तथा दिक्-काल के अन्दर एक अवस्था से दूसरी अवस्था के उत्पन्न होने का जो क्रम है जिसे हम लोग 'निमित्त' कहते हैं उस निमित्त के रूप में खोलकर प्रकट किया करती है ।

 

      एक स्थिति से दूसरी स्थिति उत्पन्न करने का उत्पत्तिक्रम और निरंतर परिवर्तन ही कर्म है, प्रकृतिकर्म, उस प्रकृति की ऊर्जा है जो कर्मकर्त्नी और सब क्रियाओं की ईश्वरी है । प्रथमतः यह स्वभाव का अपने सृष्टिकर्म के रूप में निकल पड़ना है, इसीको विसर्ग कहते हैं । यह सृष्टिकर्म भूतों को उत्पन्न करनेवाला है--''भूतकरः''  है और फिर ये भूत जो कुछ आंतर रूप से अथवा अन्य प्रकार से होते हैं उसका भी कारण है--''भावकर:'' है । यह सब मिलकर काल के अन्दर पदार्थों का सतत जनन या 'उद्धव' है जिसका मूल तत्व कर्म की सर्जनात्मक ऊर्जा है । यह सारा क्षरभाव अर्थात् 'अधिभूत' प्रकृति की शक्तियों के सम्मिलन से निकल पड़ता है, यह अधिभूत ही जगत् है और जीव की चेतना का विषय है । इस सबमे जीव ही प्रकृतिस्थ भोक्ता और साक्षिभूत देवता है; बुद्धि, मन और इन्द्रियों की जो दिव्य शक्तियाँ हैं,  जीव की चेतन सत्ता की जो शक्तियाँ हैं जिनके द्वारा

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यह प्रकृति की क्रिया को प्रतिबिंबित करता है, इसके 'अधिदैव'  अर्थात् अधिष्ठातृ-देवता हैं । यह प्रकृतिस्थ जीव ही इस तरह क्षर पुरुष है, भगवान् का नित्य कर्म-स्वरूप; यही जीव प्रकृति से लौटकर जब ब्रह्म में आ जाता है तब अक्षर पुरुष होता है, भगवान् का नित्य नैष्कर्म्य-स्वरूप । पर क्षर पुरुष के रूप और शरीर में परम पुरुष भगवान् ही निवास करते हैं । अक्षरभाव को अचल शान्ति और क्षरभाव के कर्म का आनन्द दोनों ही भाव एक साथ अपने अन्दर रखते हुए भगवान् पुरुषोत्तम मनुष्य के अन्दर निवास करते हैं । वे हमसे दूर किसी परतर, परात्पर पद पर ही प्रतिष्ठित नहीं हैं, बल्कि यहाँ प्रत्येक प्राणी के शरीर में, मनुष्य के हृदय में और प्रकृति में भी मौजूद हैं । वहाँ वे प्रकृति के कर्मों को यज्ञरूप से ग्रहण करते और मानव जीव के सचेत होकर आत्मार्पण करने की प्रतीक्षा करते हैं;  परन्तु हर हालत में, मनुष्य की अज्ञानावस्था और अहंकारिता में भी वे ही उसके स्वभाव के अधीश्वर और उसके सब कर्मों के प्रभु होते हैं,  प्रकृति और कर्म का  सारा विधान उन्हींकी अध्यक्षता में होता है । उन्हींसे निकलकर जीव प्रकृति की इस क्षर-क्रीड़ा में आया है और अक्षर आत्मसत्ता से होता हुआ उन्हींके परम धाम को प्राप्त होता है ।

 

     मनुष्य संसार में जन्म लेकर प्रकृति और कर्म के चक्कर में लोक-परलोक के चक्कर काटता रहता है । प्रकृति में स्थित पुरुष--यही उसका सूत्र होता है । उसकी आत्मा जो कुछ सोचती, मनन करती और कर्म करती है, वह वही हो जाता है । वह जो कुछ रहा है उसीसे उसका वर्तमान जन्म बना;  और जो कुछ वह है, जो कुछ वह सोचता और इस जीवन में अपनी मृत्यु के क्षण तक करता रहता है उसीसे, वह मृत्यु के बाद परलोकों में और अपने भावी जीवनों में जो कुछ बननेवाला है, वह निश्चित होगा । जन्म यदि 'होना' है तो मृत्यु भी एक 'होना' ही है, किसी प्रकार समाप्ति नहीं । शरीर छूट जाता है, पर जीव, ''त्यक्त्वा कलेयरम्"  शरीर को छोड्कर अपने रास्ते पर आगे बढ़ता है । इस लोक से प्रयाण करने के संधिक्षण में वह जो कुछ हो उसी पर बहुत कुछ निर्भर है । क्योंकि मृत्यु के समय जिस संभूति के रूप पर उसकी चेतना स्थिर होती है और मृत्यु के पूर्व जिससे उसकी मन-बुद्धि सदा तन्मय रहती आयी है उसी रूप को वह प्राप्त होता है; क्योंकि प्रकृति कर्म के द्वारा जीव के सब विचारों और वृत्तियों को ही कार्यान्वित किया करती है और यही असल में प्रकृति का सारा काम है । इसलिए मानव-आधार में स्थित जीव यदि पुरुषोत्तम-पद लाभ करना चाहता है तो उसके लिए दो बातें जरूरी हैं, दो शर्तों का पूरा होना जरूरी है । एक यह कि इस पार्थिव लोक में रहते हुए उसका संपूर्ण आंतरिक जीवन

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उसी आदर्श के अनुकूल गढ़ जाय; और दूसरी यह कि प्रयाण-काल में उसकी अभीप्सा और संकल्प वैसा ही बना रहे । भगवान् कहते हैं,  ''जो कोई अंतकाल में इस शरीर को छोड्कर मेरा स्मरण करता हुआ प्रयाण करता है, वह मेरे भाव को प्राप्त होता है ।''   अर्थात् पुरुषोत्तम-भाव को, ''मद्धाव'' को प्राप्त होता है ।  वह भगवान् के मूल स्वरूप के साथ एक होता है और यही जीव का ''परो भाव:''  है, कर्म के अपने असली रूप में आकर अपने मूल की ओर जाने का परम फल है । जीव जब विश्वप्रकृति (अपरा प्रकृति ) की क्रीड़ा के पीछे-पीछे चलता है तब यह प्रकृति उसके पराप्रकृतिस्वरूप असली स्वभाव को ढाँक देती है, इस तरह जीव का जो चित्स्वरूप है वह नानाविध भूतभाव को धारण करता, तत्तद्धाव (तं तं भावम् ) को प्राप्त होता है । इन सब भावों को पार कर जब वह अपने मूल स्वरूप में लौट आता है और इस लौट आने की वृत्ति अर्थात् निवृत्ति से होकर अपने सत्स्वरूप और सदात्मा को पा लेता है तो वह उस मूल आत्मपद को प्राप्त करता है जो निवृत्ति की दृष्टि से परम भाव को, 'मद्धाव' को प्राप्त होना है । एक अर्थ में हम कह सकते हैं कि इस तरह वह ईश्वर हो जाता है, क्योंकि अपने प्राकृत स्वरूप और सत्ता के इस परम रूपान्तर के द्वारा वह भगवान् के ही स्वरूप के साथ एक हो जाता है ।

 

     गीता इस प्रसंग में मृत्युकालीन मनःस्थिति और विचार का बड़ा महत्व बतलाती है । इस महत्व को समझना हमारे लिए वहुत कठिन हो सकता है यदि हम उस चीज को न जानते हों जिसे चेतना की स्वत:सिद्ध आत्मसर्जनात्मक शक्ति कहा जा सकता है । हमारा विचार, हमारी आंतरिक दृष्टि, हमारी श्रद्धा जिस किसी बात पर पूर्ण सुस्थिर होकर गड़ जाती है, उसीमें हमारी आंतरिक सत्ता परिवर्तित होने लगती है । यह प्रवृत्ति उस समय एक निर्णायक शक्ति बन जाती है जब हम उन उच्चतर आध्यात्मिक और स्वयं-विकसित अनुभवों को प्राप्त होते हैं जो बाह्य पदार्थों पर उतने अवलंबित नहीं होते जितनी कि बाह्य प्रकृति से बँधे होने के कारण हमारी सामान्य मनोगति हुआ करती है । वहाँ हम स्पष्ट देख सकते हैं कि हम जिस किसी वस्तु पर अपने मन को स्थिर कर लेते हैं और जिसकी निरंतर अभीप्सा करते हैं वही होते जाते है। इसलिए वहाँ अपने विचार का थोड़ी देर के लिए भी छूट जाना, स्मरण में जरा से भी व्यभिचार का आ जाना इस परिवर्तन-क्रम से पीछे हटना है या इस उन्नति-क्रम से नीचे गिरकर उसी जगह आ जाना है जहाँ हम पहले थे--यह बात कम-से-कम तबतक ऐसे ही चलती है जबतक हम अपने नवीन भाव--नवीन आधार-निर्माण को वास्तविक

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१.  ८,  ५

३०५ 


रूप और अपरिवर्तनीय ढंग से स्थापित न कर चुके हों । जब यह हो जाता है, जब हम उस चीज को अपने सतत सामान्य अनुभव की-सी चीज बना लेते हैं तब उसकी स्मृति स्वत:सिद्ध रूप से रहा करती है, क्योंकि वह हमारी चेतना का ही स्वाभाविक रूप होती है । इससे, मर्त्य जगत् से प्रयाण करने के संधिक्षण में, तबतक हमारी चेतना जो कुछ बन चुकी है उसका महत्व स्पष्ट हो जाता है । पर यह मरण-शय्या पर किसी तरह भगवान् का वैसा नाम ले लेना नही है जिसका हमारी संपूर्ण जीवनधारा और हमारी पूर्वतन मनःस्थिति से कोई मेल न हो या जिसकी इनके द्वारा पहले से पूरी तैयारी न हुई हो । ऐसा नाम लेने में वह उद्धारक शक्ति नहीं हो सकती । यहाँ गीता जो बात बतला रही है वह वह चीज नहीं है जिसे सामान्य लौकिक धर्म मुक्ति का सहज मार्ग समझकर करते हैं; सारा जीवन अपवित्रता में बीता हो और फिर भी पादरी के द्वारा अंत में सर्वप्रायश्चित करा लेने से ही ईसाई का मरण-काल में पावन हो जाना अथवा पवित्र काशीधाम में मरने या पतितपावनी गंगा के तट पर मर जाने से ही मुक्ति का मिल जाना इत्यादि जो बेसिर-पैर की बातें हैं उनसे गीता की इस बात का कोई मेल नहीं है । जिस दिव्य भाव पर मन को प्रयाणकाल में अचल रूप से स्थिर करना, 'यं स्मरन् भावं त्यजति अन्ते कलेवरम्' होता है, वह तो वही भाव हो सकता है जिसकी ओर जीव अपने सांसारिक जीवन में प्रतिक्षण आगे बढ़ता रहा हो, "दा तद्धावभावित:" रहा हो । ''इसीलिए''  भगवान् कहते है कि, ''सदा ही मेरा स्मरण करते रहो और युद्ध करो; यदि तुम्हारे मन और बुद्धि सदा ही मुझपर स्थिर और अर्पित, 'मयि अर्पितमनोबुद्धि:' रहेंगे तो तुम निश्चय ही मेरे पास चले आओगे । क्योंकि सतत अविचल योगाभ्यास के द्वारा अनन्यचित्त होकर निरंतर परम पुरुष भगवान् का चिंतन करने से जीव उन्हींको प्राप्त होता है ।''

 

      यहीं उन परम पुरुष भगवान् का सर्वप्रथम वर्णन आता है जो अक्षर ब्रह्म से भी उत्तम और महान् हैं और जिन्हें गीता आगे चलकर पुरुषोत्तम नाम प्रदान करती है । ये भगवान् भी अपनी कालातीत सनातन सत्ता में अक्षर हैं और यहाँ जो कुछ व्यक्त है उसके अतीत हैं और इस काल के अन्दर उन ''अव्यक्त अक्षर'' की केवल कुछ झाँकियाँ उनके विविध प्रतीकों और प्रच्छन्न वेशों द्वारा प्राप्त हुआ करती हैं । फिर भी वे केवल ''अलक्षणम् अनिर्द्देश्यम्'' नहीं हैं; या यह कहिये कि वे अनिर्द्देश्य केवल इसलिए हैं कि मनुष्य की बुद्धि जिसे अत्यंत सूक्ष्म अणु-परमाणु जानती है वे उससे भी अधिक सूक्ष्म हैं और इसलिए भी कि उनका रूप हमारे चिंतन के परे है, इसलिए गीता उन्हें ''अणोरणीयांसम्" ,

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१.  ८-६                            २.   ८.  ७-८

३०६ 


''अचिन्स्यरुपम्"  कहती है । ये परम पुरुष परमात्मा ''कवि'' अर्थात् द्रष्टा हैं,   'पुराण'  हैं--किसी भी काल से पुरातन हैं और अपनी सनातन आत्मदृष्टि और ज्ञान में ही स्थित रहते हुए सब भूतों के 'अनुशासिता' तथा अपनी सत्ता में सबको यथास्थान रखनेवाले ''धाता'', ''कविं पुराणम् अनुशासितारं सर्वस्य धातारम्"  हैं |  ये परम पुरुष वही अक्षर ब्रह्म हैं जिसकी बात वेदविद् कहा करते हैं, ये ही 'वह' हैं जिनमें तपस्वी लोग वीतराग होकर प्रवेश करते और जिनके लिए ब्रह्मचर्य-पालन करते हैं ।   वही सनातन सत्ता परम ( सर्वोच्च ) पद है;  इसलिए वही जीव की कालावच्छिन्न गति का परम लक्ष्य है, किन्तु, यह स्वयं गतिरूप नहीं, यह एक आदि, सनातन, परम अवस्था या स्थान, 'परमं स्थानम् आद्यम्' है ।

 

     गीता योगी की उस अंतिम मनोवस्था का वर्णन करती है जिसमें वह मृत्यु के द्वारा जीवन से निकलकर उस परम भागवत सत्ता को प्राप्त होता है । उसका मन अचल होता है, वह योगबल से बलवान् और भक्ति से भगवान् के साथ युक्त होता है--यहाँ ज्ञान के द्वारा निर्गुण निराकार के साथ एकत्व ने भक्ति के द्वारा भगवान् से युक्त होने की बात को पीछे नहीं छोड़ दिया है, बल्कि यह भक्तियोग अंत तक परम योगशक्ति का एक अंग बना रहता है--उसका प्राण सर्वथा ऊपर चढ़ा हुआ भ्रूमध्य में आत्म-दर्शन के आसन पर सम्यक् रूप से स्थित रहता है । इन्द्रियों के सब द्वार बन्द रहते हैं,  मन हृदय में निरुद्ध हो जाता है, प्राण अपनी विविध गतियों से हटकर मस्तक में आ जाता है, बुद्धि प्रणव के उच्चारण में तथा उसकी सारी भावना परम पुरुष परमेश्वर के चिंतन में एकाग्र होती है--माम् अनुस्मरन् । यही प्रयाण की परंपरागत योग-पद्धति है, सनातन ब्रह्म परम पुरुष परमेश्वर के प्रति योगी की संपूर्ण सत्ता का यह सर्वात्मसमर्पण है । फिर भी यह केवल एक पद्धति है, मुख्य बात जीवन में, कर्म और युद्ध तक में--मामनुस्मर युद्धश्च च-- भगवान् का निरंतर अचल मन से स्मरण करना और संपूर्ण जीवन को ''नित्ययोग'' बना देना है । जो कोई ऐसा करता है, भगवान् कहते हैं कि, वह मुझे अनायास पा लेता है, वही महात्मा है, वही परम सिद्धि लाभ करता है ।

 

     इस प्रकार ऐहिक जीवन से प्रयाण करके जीव जिस स्थिति में पहुँचता है वह विश्वातीत स्थिति है । इस सृष्ट लोकपरंपरा के अन्दर जो उत्तमोत्तम स्वर्गलोक हैं उन सबको पाकर भी जीव पुनर्जन्म का भागी होता है; पर जो जीव पुरुषोत्तम को प्राप्त होता है वह पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य नहीं होता । अतः अनिर्द्देश्य ब्रह्म को प्राप्त करने की ज्ञानाभीप्सा से जो कुछ फल प्राप्त हो सकता

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१. ८-६

२. ये शब्द उपनिषदों से ज्यों के त्यों लिए गए हैं ।

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है वह इन स्वत:सिद्ध परम पुरुष परमेश्वर को, जो सब कर्मों के अधीश्वर तथा सब मनुष्यों और प्राणियों के सुहृद् हैं, ज्ञान, कर्म और भक्ति के द्वारा प्राप्त होने की अभीप्सा के इस दूसरे और व्यापक मार्ग से भी प्राप्त होता है । उन भगवान् को इस प्रकार जानना और इस प्रकार उनका अनुसंधान करना जन्म-बंधन या कर्म-बंधन का कारण नहीं होता; जीव इस मर्त्य जीवन की क्षणभंगुर और क्लेशदायिनी स्थिति से सदा के लिए मुक्त होने की इच्छा को पूर्ण कर सकता है । और, गीता इस जन्मचक्र तथा इससे छूटने की बात को और भी सुनिश्चित रूप से सामने रखने के लिए यहाँ विश्व की सृष्टि और लय के संबंध में जो प्राचीन मान्यता है उसे स्वीकार कर लेती है । सृष्टि और लय के संबंध में यह सिद्धान्त विश्व-प्रपंचविषयक भारतीय तत्वज्ञान का एक सुनिश्चित भाग है, जिसके अनुसार यह मानी हुई बात है कि इस भव-चक्र में विश्व की सृष्टि और फिर लय, विश्व के व्यक्त होने और फिर अव्यक्त हो जानेके काल बारी-बारी से आया करते हैं । विश्व के व्यक्त होकर रहने का काल सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और उसके अव्यक्त होकर रहने का काल एक रात कहाता है, ये दिन और रात क्रमश: होते रहते हैं । सहस्र युग का यह एक दिन ब्रह्मा का कर्मकाल है और विश्रांतिमय सहस्र युग की ही एक रात वह समय है जब ब्रह्मा सोते हैं । दिन के निकलने पर सब भूत व्यक्त होते और रात होने पर फिर अव्यक्त में मिल जाते हैं । इस प्रकार ये सब भूत विकल्प-क्रम से सृष्टि और लय के चक्र के साथ अवश होकर घूमा करते हैं; बार-बार उत्पन्न होते, 'भूत्वा भूत्वा' और बार-बार अव्यक्त में जा, मिलते हैं । पर यह अव्यक्त भाव भगवान् का आदि दिव्य भाव नहीं है; वह एक दूसरी ही स्थिति''भावोऽन्य:''  है, इस विश्वगत अव्यक्त के परे एक विश्वातीत अव्यक्त है जो सदा अपने-आपमें स्थित है, वह व्यक्त होनेवाले इस विश्वपद के विपरीत नहीं है, बल्कि इसके बहुत ऊपर और इससे भिन्न है, अव्यय है, सनातन है जो इन भूतों के नाश होने के साथ नष्ट नहीं होता । ''उसे अव्यक्त अक्षर कहते हैं, उसीको परम पुरुष और परमागति कहते हैं, उसे जो लोग प्राप्त होते हैं वे लौटकर नहीं आते, वही मेरा 'परमं धाम'  है ।''  उसे जो कोई प्राप्त करता है वह इस व्यक्त और अव्यक्त भव-चक्र से निकल आता है ।

 

      हम विश्व की उत्पत्ति-प्रलय की इस धारणा को चाहे ग्रहण करें या अपने मन से हटा दें-क्योंकि यह इसपर निर्भर है कि हम ''अहोरात्रविद:'' --दिन और रात के जाननेवालों के ज्ञान को कितना महत्व देते हैं--पर मुख्य बात तो यह है कि यहाँ गीता इस विषय को कैसा मोड़ देती है । अनायास कोई समझ

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१. ८-२१

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सकता है कि यह सनातन अव्यक्त आत्मवस्तु, जिसका इस व्यक्ताव्यक्त जगत्के साथ कुछ भी संबंध नहीं प्रतीत होता, वही अलक्षित अनिर्वचनीय निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता हो सकती है, और उसे पाने का रास्ता भी यही हो सकता है कि हम अभिव्यक्ति में संभूतिरूप से जो कुछ बने हैं उससे छुटकारा पालें, यह नहीं कि अपनी बुद्धि की ज्ञान-वृति, हृदय की भक्ति, मन के योगसंकल्प और प्राण की प्राणशक्ति--को एक साथ एकाग्र करके संपूर्ण अंतश्चेतना को उसकी ओरले जायँ । विशेषत: भक्ति तो उस निरपेक्ष ब्रह्म के संबंध में अनुपयुक्त ही प्रतीत होती है, क्योंकि वह सब संबंधों से परे है, 'अव्यवहार्यहै । ''परन्तु'' गीता आग्रहपूर्वक कहती है कि यद्यपि यह स्थिति विश्वातीत और यह सत्ता सदा अव्यक्त है, तथापि ''उन परम पुरुष को जिनमें सब भूत रहते हैं और जिनके द्वारा यह सारा जगत् विस्तृत हुआ है, अनन्य भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जाता है ।''  अर्थात् वह परम पुरुष सर्वथा संबंधरहित, निरपेक्ष, मायिक प्रपंचों से अलग नहीं हैं, बल्कि सर्व जगतों के द्रष्टा-स्रष्टा और शासक हैं और उन्हींको 'एक' और 'सर्व'--वासुदेव: सर्वमिति-- जानकर और उन्हींकी भक्ति करके हमें अपने संपूर्ण चित्त से सब पदार्थों, सब शक्तियों, सब कर्मों में उनके साथ योग के द्वारा अपने जीवन की परम चरितार्थता, पूर्ण सिद्धि, परमामुक्ति प्राप्त करने में यत्नवान् होना चाहिए ।

 

      यहाँ अब और एक विलक्षण बात आती है जिसे गीता ने प्राचीन वेदान्त के रहस्यवादियों से ग्रहणकिया है । यहाँ उन दो विभिन्न कालों का निर्द्देश किया गया है जिनमेंसे कोई एक काल का योगी पुनर्जन्म लेने या न लेने के लिए इच्छानुसार चुनाव कर सकता है । अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तराय--यह एक काल है और धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन उसके विरुद्ध दूसरा काल है । पहले मार्ग से ब्रह्म के जाननेवाले ब्रह्म को प्राप्त होते है; पर दूसरे मार्ग से योगी लोग ''चान्द्रमसं ज्योति:'' को प्राप्त होकर फिर से मनुष्यलोक में जन्म लेते हैं । ये शुक्ल और कृष्ण मार्ग हैं, उपनिषदों में इन्हें देवयान (देवताओं का मार्ग ) और पितृयान (पितरों का मार्ग ) कहा गया है; जो योगी इन मार्गों को जानता है वह भ्रम में नहीं पड़ता । शुक्ल-कृष्ण गति की धारणा के पीछें

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१.४-२

२. योगानुभूति से यह मालूम होता है कि इस धारणा के पीछे वास्तव में एक मनोभौतिक सत्य है, अवश्य ही यह हर जगह हर हालत में अनिवार्य नहीं हे; प्रकाश और अंधकार की शक्तियों के बीच जो आंतरिक युद्ध होता है उसमें प्रकाश की शक्तियों का दिन या वर्ष के प्रकाशमय समयों में विशेष प्रभाव होता है और अंधकार की शक्तियों का अँघका मय समयों में, और यह हिसाब तबतक ऐसा ही चलता रह सकता है जबतक कि अंतिम विजय प्राप्त न हो जाय ।

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चाहे जो मानस-भौतिक सत्य हो या यह सत्य को लक्षित करानेवाला संकेतमात्न हो--इस में संदेह नहीं कि यह धारणा उन रहस्यविदों के युग से चली आयी है जो प्रत्येक भौतिक पदार्थ को किसी-न-किसी मनोमय वस्तु के प्रतीक के रूप में देखा करते थे और जो हर जगह बाह्य और आभ्यंतर, प्रकाश और ज्ञान, अग्नि-तत्व और आध्यात्मिक ऊर्जा के बीच परस्पर व्यवहार तथा एक प्रकार के अभेद की ही खोज किया करते थे--यह जो कुछ हो--हमें तो उसी मोड़ को देखना है जिससे गीता इन श्लोकों का उपसंहार करती है । वह है, ''अतएव, सब समय योगयुक्त रहो--तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भव ।'' 

 

     क्योंकि वही असली बात है, संपूर्ण सत्ता से भगवान् के साथ युक्त होना, इतनी पूर्णता के साथ और इस तरह समस्त भावों से युक्त हो जाना कि यह योग स्वाभाविक और अनवच्छिन्न हो जाय और संपूर्ण जीवन, केवल विचार और ध्यान नहीं, बल्कि कर्म, श्रम, युद्ध सब कुछ भगवान् का ही स्मरण बन जाय । ''मामनुस्मर यूद्धश्च च- मेरा स्मरण करते चलो और युद्ध करो'', इसका अर्थ ही यह है कि इस सांसारिक संघर्ष में जिसमें सामान्यत: हमारे मन डूबे रहते हैं,  एक क्षण के लिए भी भगवान् का स्मरण न छूटे; और यह एक ऐसी बात है जो बहुत ही कठिन, प्रायः असंभव ही प्रतीत होती है । यह सर्वथा संभव तभी होती है जब इसके साथ अन्य शर्ते भी पूरी हों । यदि हम अपनी चेतना में सबके साथ एक आत्मा बन चुके हैं--वह एक आत्मा जो सदा हमारी बुद्धि में स्वयं भगवान् हैं, और हमारे नेत्र तथा अन्य इन्द्रियाँ इन्हीं भगवान् को सर्वत्न इस प्रकार देखती और अनुभव करती हैं कि किसी भी समय किसी भी पदार्थ को हम वैसा नहीं अनुभव करते या समझते जैसा कि असंस्कृत बुद्धि और इन्द्रियाँ अनुभव करती हैं, बल्कि उसे उस रूप में छिपे हुए तथा साथ-ही-साथ उस रूप में प्रकट होनेवाले भगवान् ही जानते हैं, और यदि हमारी इच्छा भगवदिच्छा के साथ चेतना में एक हो चुकी और हमें अपनी इच्छा, अपनी मन-बुद्धि और शरीर का प्रत्येक कर्म उसी भगवदिच्छा से नि:सृत, उसीका एक प्रवाह, उसीसे भरा हुआ या उसके साथ एकीभूत प्रतीत होता है तो गीता का जो कुछ कहना है वह पूर्ण रूप से किया जा सकता है । अब भगवत्स्मरण मन की रुक-रुककर होनेवाली कोई विशेष क्रिया नहीं, बल्कि अपने जीवन की सहज अवस्था और अपनी चेतना का सारतत्व बनकर होता रहेगा । अब जीव पुरुषोत्तम के साथ अपना यथार्थ, स्वाभाविक एवं आध्यात्मिक संबंध प्राप्त कर चुका है और हमारा संपूर्ण जीवन एक योग बन गया है, वह योग जो सिद्ध होने पर भी अनन्त काल तक और समृद्धतर रूप से साधित-संवर्धित होता रहेगा ।

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१. ८-२७

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